कैमरा ऑन होते ही बिल्कुल बदल जाती थीं स्मिता पाटिल, छोटी सी जिंदगी बनाई थी अलग पहचान

हिंदी सिनेमा में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जिनके गुजर जाने के बाद भी उनकी मौजूदगी हमेशा बनी रहती है. स्मिता पाटिल ऐसा ही नाम है. उनके एक्सप्रेशन और डायलॉग बोलने का अंदाज उन्हें बाकी अभिनेत्रियों से अलग बनाता था. 

शुरुआत में वह न्यूज रीडर थीं. आत्मविश्वास के साथ कैमरे को फेस करती थीं, और यही कैमरा उनके करियर का सबसे बड़ा साथी बन गया. इंडस्ट्री में आने के बाद उन्होंने अपना हुनर दिखाया और पूरे जोश के साथ शूट किया करती थीं. उन्हें निर्देशक ‘वन टेक क्वीन’ कहते थे.

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स्मिता पाटिल की पहली फिल्म
स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 को पुणे में एक राजनीतिक परिवार में हुआ था. पिता महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे और मां एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी बचपन से ही अभिनय, नाटक और डांस में रुचि थी. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दूरदर्शन में न्यूज रीडर के रूप में काम शुरू किया. बोलने का अंदाज, कैमरे के सामने सहजता और आत्मविश्वास देखकर निर्देशक श्याम बेनेगल की नजर उन पर पड़ी. उन्होंने स्मिता को अपनी फिल्म ‘चरणदास चोर’ में कास्ट किया और यहीं से उनका फिल्मी करियर शुरू हुआ.

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सिनेमा में बनाईं अपनी अलग पहचान 
सिनेमा की दुनिया में जब स्मिता ने कदम रखा, उस समय ग्लैमर्स अभिनेत्रियों का बोलबाला था, लेकिन स्मिता ने अपनी अलग पहचान बनाई. वह मेकअप से बचती थीं, सादे कपड़े पहनती थीं, और कैमरे के सामने एकदम असली दिखाई देती थीं.

वह ज्यादातर अपना शॉट एक ही टेक में पूरा कर लेती थीं. डायरेक्टर उनकी इस क्षमता को देखकर हैरान रह जाते थे. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, और मृणाल सेन जैसे दिग्गज फिल्मकार कहते थे कि स्मिता को एक्टिंग समझाना ऐसा है जैसे सूरज को रोशनी का मतलब समझाना.

उनकी फिल्मों का सेट इस बात का गवाह था कि कई बार डायरेक्टर को ‘कट’ बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, क्योंकि स्मिता ने पहली बार में ही सीन को परफेक्ट कर दिया होता था.

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इन फिल्मों से मिली खास पहचान
1977 में रिलीज हुई फिल्म ‘भूमिका’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. यह फिल्म बेहद भावनात्मक थी, लेकिन स्मिता ने इसमें अपना किरदार इतनी मजबूती के साथ निभाया कि दर्शक आज भी उनके रोल को भूल नहीं पाए.

वहीं, ‘मंथन’ में उनका गांव की महिला का किरदार इतना स्वाभाविक था कि लोग मान बैठे कि वे सच में उसी गांव की रहने वाली हैं. ‘आखिर क्यों’, ‘चक्र’, ‘अर्थ’, ‘मिर्च मसाला’ समेत कई फिल्मों में उन्होंने मुश्किल से मुश्किल सीन एक ही टेक में पूरे कर दिए. कई बार ऐसा भी हुआ कि बाकी कलाकार रिहर्सल कर रहे होते थे और स्मिता शांत बैठकर सीन के भाव को समझ रही होती थीं. कैमरा ऑन होते ही वे बिल्कुल अलग इंसान बन जाती थीं.

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उनका करियर केवल 10 साल का था. इस दौरान उन्होंने कई अवॉर्ड्स अपने नाम किए. 1980 में ‘भूमिका’ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और 1985 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया. 13 दिसंबर 1986 को महज 31 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.

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