Bhagavad Gita: श्रीकृष्ण के अनुसार, जब संसार में धर्म केवल बाहरी कर्मकांड, परंपराओं और संप्रदायों में बँध जाता है, तब किसी महापुरुष का प्रकट होना आवश्यक हो जाता है, जो सच्चे धर्म और ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग पुनः स्पष्ट करे.
गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा है कि केवल ज्ञानी कहलाने के लिए कर्म छोड़ देना वास्तविक ज्ञान नहीं है. ज्ञानयोग हो या निष्काम कर्मयोग दोनों का मूल एक ही है, और वह है कर्म करना. कर्म छोड़े बिना न योग सिद्ध होता है और न ही ज्ञान पूर्ण होता है. अर्जुन को श्रीकृष्ण ने यही समझाया कि धैर्य और विवेक के साथ निरंतर कर्तव्य करते रहना ही धर्म है.
कर्तव्य सर्वोपरि, युद्ध भी धर्म है
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी पथ नहीं है. जीत मिले तो भी यश, और यदि मृत्यु भी मिले तो देवत्व का यश मिलता है. इस भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना ही सच्चे ज्ञान की पहचान है. गुरु और महापुरुष प्रेरक ज़रूर होते हैं, पर निर्णय और कर्म मनुष्य को स्वयं ही करना होता है. इस प्रकार श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान का मार्ग “बैठे रहने” की शिक्षा नहीं देता बल्कि धर्मयुक्त कर्म में दृढ़ता सिखाता है.
निष्काम कर्मयोग ज्ञान से भी श्रेष्ठ
श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में कहा है कि दोनों मार्ग परम श्रेय देने वाले हैं, पर निष्काम कर्मयोग अधिक सरल, सहज और श्रेष्ठ है. क्योंकि बिना त्याग की भावना के कोई संन्यासी नहीं बन सकता और बिना कर्म किए कोई योगी नहीं हो सकता. कर्म दोनों में है, पर दृष्टि अलग है. ज्ञानयोग में विवेक मुख्य है, निष्काम कर्मयोग में समर्पण मुख्य है. यज्ञरूप कर्म को छोड़कर कोई मार्ग सिद्ध नहीं होता है.
ईश्वर के लिए कर्म करना
छठे अध्याय में, श्रीकृष्ण ने कहा है कि वही सच्चा संन्यासी और योगी है जो फल की आसक्ति छोड़कर अपने कर्तव्य का पालन करता है. न वह व्यक्ति संन्यासी है जो अग्निहोत्र छोड़ दे, और न वह योगी है जो कर्म छोड़कर आँखें मूँद ले. अष्टांगयोग साधना तो उच्च है, पर कलियुग में कठिन है. इसलिए श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को सर्वोपरि बताया है. क्योंकि हर मनुष्य कर्म करता ही है. जब वही कर्म ईश्वर के लिए किया जाए तो वह योग बन जाता है.
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