नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में मंगलवार को एक अहम बहस शुरू हुई। मामला यह है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों पर बिलों पर हस्ताक्षर करने के लिए तय समय-सीमा लागू की जा सकती है या नहीं? राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (President Draupadi Murmu) ने खुद संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत यह सवाल सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) से पूछा है? लेकिन, विपक्ष-शासित तमिलनाडु और केरल सरकारें इस संदर्भ को ही चुनौती दे रही हैं। उनका कहना है कि यह संदर्भ असल में सरकार का है, राष्ट्रपति का नहीं और पहले से दिए गए फैसलों को दोबारा खुलवाने की कोशिश है।
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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई (Chief Justice BR Gavai) की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने शुरुआत में ही पूछा कि ‘जब खुद राष्ट्रपति ने राय मांगी है तो इसमें दिक्कत क्या है? क्या आप वाकई इसे चुनौती देना चाहते हैं? बेंच ने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत इस मामले में सलाहकारी अधिकार-क्षेत्र में बैठी है, यानी अभी यह कोई अंतिम आदेश नहीं बल्कि केवल राय देने की प्रक्रिया है।
राष्ट्रपति ने क्यों पूछा सवाल?
मामला इसलिए उठा क्योंकि इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले में कहा गया कि राज्यपाल किसी भी बिल पर जितनी जल्दी संभव हो कार्रवाई करेंगे। अगर राज्यपाल बिल को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा। राज्यपाल के पास अपने विवेक से बिल रोकने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह माननी ही होगी। इसके बाद राष्ट्रपति ने 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) से पूछे कि क्या अदालत तय समय-सीमा तय कर सकती है और अनुच्छेद 200 व 201 की व्याख्या कैसे होगी।
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मामले में केंद्र सरकार का पक्ष
केंद्र ने लिखित जवाब में कहा है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल पर समयसीमा तय करना संविधान में शक्ति विभाजन के खिलाफ होगा। ऐसा करने से एक अंग (न्यायपालिका) दूसरे अंग (कार्यपालिका) की शक्ति अपने हाथ में ले लेगा और संवैधानिक अव्यवस्था पैदा हो जाएगी।
क्या है तमिलनाडु और केरल की आपत्ति?
वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल (केरल पक्ष से) ने कहा कि अनुच्छेद 200 और राज्यपाल की भूमिका पर पहले ही सुप्रीम कोर्ट कई फैसले दे चुका है। पंजाब, तेलंगाना और तमिलनाडु के मामलों में कोर्ट ने साफ व्याख्या की है। जब फैसले मौजूद हैं तो फिर नया रेफरेंस स्वीकार नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति असल में मंत्रिपरिषद की सलाह से ही चलती हैं। इसलिए यह राष्ट्रपति का नहीं बल्कि केंद्र सरकार का रेफरेंस है। वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी (तमिलनाडु पक्ष से) ने दलील दी, उन्होंने कहा कि ‘यह असल में पुराने फैसले के खिलाफ एक तरह की अपील है, चाहे इसे कितनी भी खूबसूरती से पैक किया जाए।’ सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की अखंडता बनाए रखने के लिए इस तरह का रेफरेंस स्वीकार नहीं होना चाहिए।
अदालत में क्या-क्या किए गए तर्क-वितर्क?
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जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा (Justice P.S. Narasimha) ने कहा कि न्यायिक फैसला और सलाहकारी राय दोनों की प्रकृति अलग होती है। मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि क्या कोई ऐसा उदाहरण है जहां डिवीजन बेंच के फैसले के बाद रेफरेंस नहीं लिया गया हो। इस बीच, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि (Attorney General R. Venkataramani) ने केरल और तमिलनाडु की आपत्ति का विरोध किया और कहा कि यह रेफरेंस पूरी तरह वैध है।
क्यों अहम है यह मामला?
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने जुलाई में कहा था कि यह मुद्दा पूरे देश को प्रभावित करेगा। अगर समय-सीमा तय होती है तो राज्यपाल और राष्ट्रपति को मजबूरी में तय दिनों में फैसला करना होगा। राज्यों का मानना है कि इससे केंद्र की तरफ से राज्यपालों के जरिए रोका गया कानून बनाने का काम आसान हो जाएगा।
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