Sanyasi Niyam, Swami Kailashanand giri: हिन्दू धर्म में जीवन की चार अवस्थाओं का वर्णन है जिसमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास है. कहा जाता है कि संन्यास लोग तभी लेते हैं जब वो सांसारिक मोह-माया को छोड़कर आत्मज्ञान की खोज में निकलते हैं. शास्त्रों में संन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहा गया है. कोई व्यक्ति जब चेतना के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचता है तब वह संन्यासी कहलाता है.
गीता में सन्यास का अर्थ
संन्यास का शाब्दिक त्याग ही होता है लेकिन गीता में संन्यास को केवल भौतिक वस्तुओं और कर्तव्यों का त्याग नहीं कहा गया है, बल्कि इसे मानसिक और भावनात्मक त्याग के रूप में देखा गया है.
जब अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं की संन्यासी जीवन और कर्मयोगी जीवन में कौन सा मार्ग बेहतर है, तो श्रीकृष्ण कर्मयोग को कर्म संन्यास से श्रेष्ठ मानते हैं.
सन्यासी का कर्म
संन्यासी अपने पूरे जीवन को वैरागी के सामान एक अत्यंत गहरी प्रक्रिया में अपने-आप को पूरी तरह से समर्पित कर देते हैं जिसमें उसे आत्मज्ञान की खोज करना, आत्मचिंतन करना, ईश्वर को तलाशना होना है. एक बार जो व्यक्ति सन्यासी बन गया वो अपने घर से पूरी तरह कट जाता है लेकिन कुछ विशेष परिस्थिति में सन्यासी को घर जाने की अनुमति होती है.
सन्यासी के नियम
संन्यास लेने के लिए व्यक्ति को परिवार का त्याग, एक समय भोजन करना, खुद का पिंडदान करना, ब्रह्मा चर्य का पालन करना, मांग कर भोजन करना, भीड़-भाड़ से अलग रहना जैसे कई तरह के कठिन कार्य को करना पड़ता है. ऐसे में वो क्या एक सन्यासी अपने घर जा सकता है, आइए स्वामी कैलाशानंद गिरी से जानें –
सन्यासी घर कब जा सकता है ?
सामान्य तौर पर सन्यासी घर नहीं लौटते क्योंकि सन्यास का अर्थ है सांसारिक जीवन और मोह-माया का त्याग, लेकिन स्वामी कैलाशानंद गिरी ने बताया कि सन्यासी को कब घर जाने की अनुमति होती है.
अगर सन्यासी की माता जीवित हैं तो उन्हें माता से मिलने के लिए घर जाने की अनुमति होती है, अपने आध्यात्मिक गुरु की आज्ञा लेकर सन्यासी समय-समय पर घर जाकर मां की सेवा कर सकता है लेकिन सन्यासी को घर में रहने का अधिकार नहीं है.
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