Jainism Sallekhana vidhi saint take samadhi leave food before death

Sallekhana: भारत में तमाम धर्म में संत बनने की प्रक्रिया अलग-अलग होती है. जैन धर्म हमेशा अहिंसा, सत्य के सिद्धांत का पालन करते हुए आया है. जैन धर्म में एक प्रथा लंबे समय से चली आ रही है इसका नाम है संलेखना. ये खास परंपरा संतों द्वारा निभाई जाती है. आखिर क्या है संलेखना प्रथा, इसका महत्व क्या है आइए जानते हैं

क्या है संलेखना ?

जैन धर्म में सबसे पुरानी प्रथा मानी जाती है संलेखना परंपरा इसे संथारा भी कहते हैं जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है. इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है. जैन संत आचार्य विद्यासागर ने भी जैन धर्म में प्रसिद्ध सल्लेखना विधि से ही महासमाधि ली थी यानी अपने प्राणों का त्याग किया था.

महत्व

जैन दर्शन के इस शब्द में दो शब्द ‘सत्’ और ‘लेखन’ आते हैं. जिसका शाब्दिक अर्थ है अच्छाई का लेखा-जोखा करना. इसे समाधिमरण भी कहते हैं. महासमाधि को आम तौर पर मुक्ति या मोक्ष के रूप में जाना जाता है.

जैन परंपरा के अनुसार महासमाधि या सल्लेखना से नश्वर जीवन की मुक्ति बिना किसी विशेष कर्मकांड के ही की जा सकती है.  इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है. जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है.

कब निभाई जाती है संलेखना परंपरा ?

  • जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार, जब किसी व्यक्ति को अकाल, बुढ़ापा या रोग की स्थिति घेर ले, जिसका कोई उपाय या उपचार न हो, तो उसे सल्लेखना की परंपरा के जरिए अपने शरीर त्याग देना चाहिए.
  • इस विधि को निभाने से पहले व्यक्ति को अपने गुरु से अनुमति लेना आवश्यक है.  किसी के गुरु जीवित नहीं हैं, तो सांकेतिक रूप से उनसे अनुमति ली जाती है.
  • संलेखना परंपरा निभाने वाले व्यक्ति की सेवा में चार लोग सदा उसकी सेवा में तब तक लीन रहते हैं. जब तक वह मोक्ष को प्राप्त न हो जाएं.

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