सुप्रीम कोर्ट या ‘सुपर संसद’ की टिप्पणी ने लाया सियासी हलकों में जोरदार भूचाल, राजनीति, कानून और नैतिकता पर देश में छिड़ी जोरदार बहस

नई दिल्ली : राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय सीमा निर्धारित करने वाले सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Vice President Jagdeep Dhankhar) ने न्यायपालिका के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें।

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उन्होंने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 (Article 142) लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल (Nuclear Missile) बन गया है। जो सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है। चाहे वह किसी भी मामले में हो। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां न्यायाधीश कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम स्वयं संभालेंगे और एक ‘सुपर संसद’ (Super Parliament) के रूप में कार्य करेंगे।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Vice President Jagdeep Dhankhar) की इस टिप्पणी ने सियासी हलकों में जोरदार भूचाल ला दिया है। विपक्षी पार्टियों ने उनके बयानों को न्यायपालिका की तौहीन बताते हुए तीखी आलोचना की है। कांग्रेस, डीएमके, टीएमसी समेत कई दिग्गज कानूनी जानकारों ने धनखड़ पर आरोप लगाया कि उन्होंने संविधान और अदालतों की गरिमा को ठेस पहुंचाई है। वहीं इस विवाद में बीजेपी ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए उपराष्ट्रपति का बचाव किया।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Vice President Jagdeep Dhankhar) के बयान के जवाब में देश के दो सबसे तेजतर्रार वकीलों- कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी, ने जो दलीलें पेश की हैं, वो इस बहस को नया मोड़ दे रही हैं। राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल (Kapil Sibbal) ने धनखड़ के बयान पर कहा, कि बहुत दुख हुआ। यह देखकर अफसोस होता है कि जब फैसले सरकार के मनमुताबिक हों, तो कोर्ट की तारीफ होती है, और जब न हों, तो उसे लांछित किया जाता है। उन्होंने याद दिलाया कि अनुच्छेद 142 संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को दिया है ताकि वो ‘पूर्ण न्याय’ कर सके। सिब्बल ने कहा, कि राष्ट्रपति एक सांकेतिक पद है। असली शक्ति मंत्रिमंडल के पास होती है। उपराष्ट्रपति को यह समझना चाहिए।

सिंघवी का कानूनी चाबुक

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कांग्रेस सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी (Abhishek Manu Singhvi) ने भी इस मुद्दे पर स्पष्ट और धारदार जवाब दिया। उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा कि ‘मैं आदरपूर्वक, लेकिन पूरी मजबूती से असहमत हूं। आर्टिकल 142 कोई नया प्रावधान नहीं है। इसकी जड़ें 50 साल पुरानी न्यायिक परंपरा में हैं। वो कहते हैं, डॉ. आंबेडकर ने खुद सुप्रीम कोर्ट को यह विशेष अधिकार देने का समर्थन किया था।और कोर्ट ने हमेशा Article 142 के इस्तेमाल में ‘आत्म-नियंत्रण’ बरता है।

राज्यपाल बनाम संविधान

सिंघवी का बड़ा सवाल था कि ‘जब केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल विपक्षी राज्यों में राजनीतिक एजेंट की तरह काम करें, तो क्या कोर्ट चुप रहे? उनका इशारा पंजाब, बंगाल और तमिलनाडु की ओर था, जहां राज्यपाल महीनों तक बिल्स को दबाए रखते हैं, या बिना किसी ठोस वजह के मंजूरी नहीं देते। सिंघवी ने कहा,कि संविधान ने कभी नहीं सोचा था कि राज्यपाल ऐसे ‘अलसाए चौकीदार’ बन जाएंगे। उन्होंने कहा कि संविधान बुरा नहीं होता। इंसान की नीयत होती है जो उसे बिगाड़ती है।

राष्ट्रपति को लेकर विवाद क्यों?

धनखड़ ने जो चिंता जताई, वो राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर थी। लेकिन सिंघवी ने उसे भी खारिज किया। उनका तर्क था, ‘गवर्नर और राष्ट्रपति, दोनों के लिए संविधान का स्ट्रक्चर लगभग एक जैसा है। अगर कोर्ट राज्यपाल को समय सीमा दे सकती है, तो राष्ट्रपति को क्यों नहीं?’ वो पूछते हैं कि ‘अगर राष्ट्रपति बिल पर निर्णय नहीं लेते, तो क्या संसद और राज्य सरकारें यूं ही इंतजार करती रहें? क्या यह लोकतंत्र है?

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राजनीति, कानून और नैतिकता

यह बहस अब सिर्फ कानूनी नहीं रही। यह संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, संतुलन और दायित्व की लड़ाई बन चुकी है। जहां सरकार आर्टिकल 142 को ‘ज्यादा शक्ति’ मानती है, वहीं विपक्ष इसे संविधान की ‘अंतिम ढाल’ मानता है और जब संवैधानिक मर्यादाएं खतरे में हों, तो वही ढाल न्यायपालिका के हाथ में रहनी चाहिए, ऐसा सिंघवी और सिब्बल दोनों मानते हैं।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला (Randeep Singh Surjewala) ने साफ कहा,कि हमारे लोकतंत्र में सबसे ऊपर अगर कोई चीज है तो वो है भारत का संविधान। न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री और न ही राज्यपाल, कोई भी व्यक्ति संवैधानिक मर्यादा से ऊपर नहीं हो सकता। सुरजेवाला ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को भी सराहा जिसमें राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा रोके गए बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने इसे साहसिक और समय पर लिया गया फैसला बताया।

टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी (TMC MP Kalyan Banerjee) ने उपराष्ट्रपति के बयान को बेहद आपत्तिजनक करार दिया और कहा कि ये अदालत की अवमानना के दायरे में आता है। उन्होंने कहा,कि उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से ये उम्मीद की जाती है कि वो बाकी संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करे, ना कि बार-बार उनकी उपेक्षा करे।

विवाद में कूदी बीजेपी वहीं, बीजेपी ने उपराष्ट्रपति का बचाव करते हुए विपक्ष पर पलटवार किया। बीजेपी प्रवक्ता शहजाद पूनावाला (BJP spokesperson Shehzad Poonawala) ने कहा, कि जो पार्टी संसद से पास हुए कानून को लागू करने से मना करती है, जो वोटबैंक की राजनीति के लिए दंगाइयों को बचाती है, वो हमें संविधान की मर्यादा न सिखाए।

 

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