Guru Purnima 2024: हिंदू कैलेंडर अनुसार हर महीने में पूर्णिमा तिथि आती है और इस पूर्ण चंद्रमा के दर्शन होते हैं. लेकिन आषाढ़ मास की पूर्णिमा (Ashadha Purnima) जिसे हम सब गुरु पूर्णिमा के नाम से जानते हैं.
इस मास अपको चंद्रमा के दर्शन नहीं होते, क्योंकि गुरु ही चंद्रमा के रुप में आपके समक्ष होते हैं. चंद्र देव के 2 मूल उद्देश होते हैं इस ब्रह्मांड के लिए वो हैं- प्रकाश देना और शीतलता प्रदान करना
यह दोनों काम गुरु के भी होते हैं. शिष्य को अपने ज्ञान से प्रकशित करना और और शिष्य के अंदर की उमड़ती और प्रज्वलित जिज्ञासा का समाधान के रुप में शीतलता प्रदान करना.
गुरु का अर्थ (Meaning of Guru)
अद्वय तारक उपनिषद अनुसार–
गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः।
अन्धकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ 16॥
अर्थ– “गु” का अर्थ है अंधकार. “रु” शब्द मिटाना या उन्मूलन. इसलिए, जो कोई भी अंधकार को मिटाने और उसके द्वारा किसी के जीवन में प्रकाश लाने की क्षमता रखता है, उसे गुरु कहा जाना चाहिए.
गुरू पुर्णिमा उद्गम
लोक परंपरा के अनुसार गुरु पूर्णिमा का दिन गुरु और शिष्य के लिए खास होता है. इस दिन शिष्य जो हैं वह गुरु के चरण छूकर उनका आशीर्वाद लेता है. व्रत चंद्रिका अध्याय क्रमांक 12 के अनुसार, आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान वेद व्यास की स्मृति में गुरु पूर्णिमा के रूप मनाई जाती है.
महाभारत आदि पर्व 104.15 के अनुसार वेद व्यास ने 4 वेदों, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद की व्याख्या की थी इसलिए उन्हें ‘व्यास’ की उपाधि दी गई है और चूंकि उनका रंग काला था इसलिए उन्हें कृष्ण कहा जाता है.
वेद व्यास को द्वैपायन क्यो कहा जाता हैं?
महाभारत आदि पर्व 63.86 के अनुसार, वेद व्यास को इस दौरान यमुना द्वीप पर छोड़ दिया गया था, इसलिए उनका नाम द्वैपायन रखा गया. उनको प्रथम गुरुओं में से एक माना गया है इसलिए यह परंपरा है कि इस दिन हमें अपने जीवन में आए सभी गुरुजनों की पूजा करनी चाहिए और उनका आशीर्वाद लेना चाहिए.
गुरु-शिष्य परंपरा में विश्वास रखने वालों के लिए गुरु पूर्णिमा का दिन बहुत महत्वपूर्ण है. कल्पभेद के अनुसार देखा जाए तो नारायण को आदिगुरु माना जाता है. इसलिए गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा भगवान नारायण के काल से चली आ रही है.
आदिकाल से ही भारतवर्ष में सद्गुरुओं और ब्रह्मज्ञानियों ने हमारी संस्कृति में स्थापित भौतिक तथा आध्यात्मिक कई विषयों पर उपलब्ध उच्चतम ज्ञान को संरक्षित रख कर मानवता के कल्याण के लिए उसे आगे बढ़ाने का कार्य किया है. उन्हें स्मरण करने और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की यह परंपरा भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है, जिसे हम गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं.
गुरु-शिष्य परंपरा के कारण ही हमारे देश की प्रत्येक संस्कृति में यह सुनिश्चित हो पाया कि उन्हें तथा आने वाली पीढ़ियों को ऐसा ज्ञान मिलता रहा जिससे मानव कल्याण के लिए उच्च कोटि का ज्ञान अर्जित करने तथा मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के सूत्र उपलब्ध होते रहे.
गुरु परंपरा के प्रत्येक गुरुओं ने इस शाश्वत ज्ञान को अपने समय की पीढ़ियों की आवश्यकता अनुसार सरल तथा सार्थक रूप में प्रस्तुत किया है. हमारे ग्रंथ उसी परंपरा से निकले हैं. पारंपरिक रूप से हर युग में आए हमारे गुरुओं का व्यक्तित्व प्रभावशाली और विलक्षण गुणों से ओतप्रोत रहा है. इस दिन उनका स्मरण करने मात्र से हम उनके गुणों को अपने भीतर अनुभव कर पाते हैं, भले ही यह अल्पावधि के लिए ही हो.
गुरु गीता से एक कथा श्री श्री रविशंकर अनुसार
एक दिन देवी पार्वती ने देखा, भगवान शिव पूजा में तल्लीन और झुक कर नमन कर रहे हैं. यह देखकर उन्होंने पूछा, “आप तो स्वयं ईश्वर हैं, आप किस के सामने नतमस्तक हो रहे हैं?” भगवान शिव (Lord Shiva) ने उत्तर दिया, “प्रिय पार्वती! मैं सर्वव्यापी गुरुतत्व को नमन कर रहा हूं.” गुरु गीता में ऐसे अनेक दृष्टांत बताए गए हैं जिनमें शिव-पार्वती संवाद के द्वारा भगवान शिव ने गुरुतत्व का वर्णन किया है तथा उस व्यक्ति को अत्यंत भाग्यशाली बताया है जिसके जीवन में गुरु सशरीर उपस्थित हों.
माता प्रथम गुरू होती हैं
हमें बचपन में किसने बोलना सिखाया? हमें पैरो पे चलना किसने सिखाया? हमें बोलना किसने सिखाया? हमें लगभग सभी काम प्रथम बार माता ने ही सिखाया. भगवान हर जगह नहीं रह सकते, इसलिए उन्होंने मां बनाया. इसलिए महाभारत अनुशासन पर्व 104.43 में कहा गया है, प्रतिदिन प्रातः काल सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता को प्रणाम करें. इसलिए सबसे पहले अपने माता पिता या गुरु के चरण स्पर्श करें.
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