
कई लोग महसूस ही नहीं करते कि जिन दिक्कतों से वे जूझ रहे हैं, उनकी जड़ बचपन के किसी अनुभव में छिपी है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से प्रशिक्षित साइकोलॉजिस्ट डॉ. जूडिथ जोसेफ बताती हैं कि ऐसे अनुभव दिमाग को इस तरह ढाल देते हैं कि इंसान हर समय खतरे का आभास करता रहता है. बचपन में जो प्रतिक्रियाएं हमें बचाती थीं, वही बाद में जीवन को मुश्किल बना देती हैं.

डॉ. जोसेफ कहती हैं कि ट्रॉमा सिर्फ ‘फाइट या फ्लाइट’ तक सीमित नहीं है. फॉन और फ्रीज जैसी प्रतिक्रियाएं भी इसका हिस्सा हैं. PTSD के 20 से ज्यादा लक्षण होते हैं, इसलिए कई बार बीमारी पहचान में ही नहीं आती.

यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया की एक स्टडी बताती है कि बचपन का तनाव आगे चलकर मानसिक ही नहीं, शारीरिक परेशानियों की पूरी चेन शुरू कर देता है. के अनुसार, बचपन का माहौल और परवरिश किसी व्यक्ति की पूरी एडल्ट लाइफ को प्रभावित करती है.

डॉ. जूडिथ के मुताबिक छह संकेत अक्सर बताते हैं कि पुराना ट्रॉमा अब भी आपके भीतर सक्रिय है. जैसे हल्की आवाज में भी चौंक जाना, सबको खुश रखने की आदत, जोखिम भरे काम, हर समय चौकन्ना रहना, तनाव शांत करने के लिए शराब का सहारा और छोटी बात पर गुस्से का फट पड़ना.

PTSD की मुश्किल यह है कि इसके आम लक्षण हर किसी में नहीं दिखते. यही कारण है कि यह रिश्तों और रोजमर्रा की जिंदगी को धीरे-धीरे खा जाता है. 2025 की पेन स्टेट स्टडी में पाया गया कि PTSD वाले लोग अपने पार्टनर से संवाद और समस्याएं सुलझाने में ज्यादा संघर्ष करते हैं.

ठीक होने की शुरुआत पहचान से होती है. इन संकेतों को समझना, ट्रॉमा को स्वीकार करना और उसकी जड़ तक पहुंचने की कोशिश करना ही हीलिंग का पहला कदम है. सही मदद मिलने पर इंसान धीरे-धीरे इस इमोशनल बोझ से बाहर आ सकता है.
Published at : 04 Dec 2025 02:29 PM (IST)
हेल्थ फोटो गैलरी
Read More at www.abplive.com