‘मैं यह बताते हुए खुशी महसूस कर रहा हूं कि हम अपने सैन्य सहयोग को एक नए लेवल पर ले जा रहे हैं. हम सऊदी अरब को औपचारिक रूप से ‘मेजर नॉन–NATO एलाय‘ घोषित कर रहे हैं. यह उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है.’
18 नवंबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह लफ्ज कहते हुए सऊदी अरब को नॉन–NATO अलाय में शामिल किया. अभी सिर्फ 20 देशों को ही यह मान्यता मिली है. यही नहीं, 17 नवंबर को ट्रंप ने सऊदी को F-35 फाइटर जेट बेचने की बात भी कह दी. इससे अमेरिका की सुरक्षा एजेंसियों को ही चिंता होने लगी है. ABP एक्सप्लेनर में समझते हैं कि नॉन–NATO एलाय कितना अहम है, ट्रंप सऊदी अरब पर महरबान क्यों और अमेरिका की चिंता क्या है…
सवाल 1- नॉन–NATO एलाय क्या है और इसका मिलना कितनी बड़ी बात है?
जवाब- अमेरिका का एक खास ‘दोस्ती का दर्जा‘ है, जिसे ‘मेजर नॉन–NATO एलॉय‘ कहते हैं. ये उन देशों को दिया जाता है, जो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) के सदस्य नहीं हैं. लेकिन अमेरिका के साथ बहुत करीबी सैन्य और रक्षा संबंध रखते हैं.
हालांकि, यह दर्जा NATO की सदस्यता जैसा नहीं है. NATO में अगर किसी देश पर हमला होता है, तो बाकी देश मिलकर सामना करते हैं. ‘मेजर नॉन–NATO एलॉय‘ में ऐसा कोई वादा नहीं है कि अमेरिका हमेशा लड़ाई में कूदेगा. यह सिर्फ ‘खास दोस्त‘ का स्टेटस है जो रक्षा में कुछ एक्स्ट्रा फायदे देता है…
– अमेरिका से एडवांस हथियार और टेक्नोलॉजी आसानी से और जल्दी खरीद सकते हैं.
– अमेरिका की पुरानी मिलिट्री चीजें प्राथमिकता से मिलती हैं (जैसे पुराने हेलिकॉप्टर, जहाज आदि सस्ते में).
– अमेरिका के साथ मिलकर नए हथियारों पर रिसर्च और डेवलपमेंट कर सकते हैं.
– देश की कंपनियां अमेरिकी सेना के उपकरणों की मरम्मत-मेंटेनेंस के कॉन्ट्रैक्ट ले सकती हैं.
– आतंकवाद से लड़ने के लिए एक्स्ट्रा फंडिंग और ट्रेनिंग मिल सकती है.
– कुछ खास गोला-बारूद (जैसे डेप्लिटेड यूरेनियम वाली गोलियां) खरीदने की परमिशन मिल जाती है.
सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा अमेरिकी हथियार खरीदने वाला देश है, लेकिन पहले ‘मेजर नॉन–NATO एलॉय‘ नहीं था. इससे पहले यह दर्जा कतर, बहरीन, कुवैत, जॉर्डन, मिस्र, और इसराइल जैसे कई मिडिल देशों को मिल चुका है. अब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की व्हाइट हाउस विजिट के दौरान उन्हें यह दर्जा मिल गया. सऊदी अरब के लिए यह बहुत बड़ी कूटनीतिक और सैन्य जीत है. अमेरिका सऊदी अरब को मिडिल ईस्ट में अपना सबसे खास पार्टनर मान रहा है.
सवाल 2- इससे पहले ट्रंप ने सऊदी अरब के करीब जाने की क्या-क्या कोशिशें कीं?
जवाब- डोनाल्ड ट्रंप हमेशा से सऊदी अरब को अपना बहुत करीबी दोस्त मानते हैं. 17-18 नवंबर को सऊदी प्रिंस के दौरे पर ट्रंप ने F-35 जेट्स की डील अप्रूव की और खास दोस्त बनाया. यह वो चीजें हैं जो सऊदी अरब सालों से मांग रहा था. ट्रंप ने इजराइल की चिंता को साइड किया और कहा, ‘ग्रेट अलॉय है.‘
2017: पहली विदेश यात्रा सऊदी अरब से शुरू की
ट्रंप ने राष्ट्रपति बनते ही अपना पहला विदेशी दौरा मई 2017 में सऊदी अरब का किया. वहां 110 बिलियन डॉलर के हथियारों की डील साइन की. बाद में यह पैकेज 350 बिलियन डॉलर तक का बताया. यह उस वक्त की सबसे बड़ी आर्म्स डील थी. ट्रंप ने तलवार डांस किया, किंग सलमान से गले मिले. पूरी दुनिया ने देखा कि ट्रंप सऊदी को कितना खास मानते हैं.
2017-2020: पहले टर्म में रिकॉर्ड हथियार बेचे
ट्रंप के पहले कार्यकाल में सऊदी अरब को 50 बिलियन डॉलर यानी 4.42 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के हथियार बेचे गए, जिनमें टैंक, मिसाइल, बॉम्ब और हेलीकॉप्टर समेत कई हथियार शामिल हैं. यमन जंग में सऊदी की मदद के लिए इमरजेंसी घोषित करके कांग्रेस को बाईपास किया. ट्रंप ने कहा था, ‘सऊदी अरब हमारे सबसे बड़े कस्टमर है.‘
2018: खशोगी कांड के बावजूद मोहम्मद बिन सलमान का साथ नहीं छोड़ा
अक्टूबर 2018 में सऊदी पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या हुई. अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने कहा कि क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इसके लिए जिम्मेदार हैं. पूरी दुनिया ने सऊदी की निंद की, लेकिन ट्रंप ने भी माना कि मोहम्मद बिन सलमान को शायद पता था, लेकिन ट्रंप ने कभी सैंक्शन नहीं लगाए. बल्कि कहा, ‘सऊदी से हमें बहुत पैसा मिलता है, हम रिश्ता नहीं तोड़ सकते हैं.‘ ट्रंप ने कांग्रेस के रोकने की वीटो कर दिया और हथियार भेजते रहे.
2020 में ट्रंप ने UAE को अब्राहम अकॉर्ड्स के तहत F-35 दिए. सऊदी को नहीं दिए गए क्योंकि इजराइल ने मना कर दिया था, लेकिन ट्रंप ने सऊदी को वादा किया कि ‘तुम्हारा नंबर भी आएगा.‘
सवाल 3- ट्रंप सऊदी अरब से नजदीकियां क्यों बढ़ाना चाहते हैं?
जवाब- डोनाल्ड ट्रंप के सऊदी अरब से नजदीकियां बढ़ाने की 4 बड़ी वजहें हैं…
- ईरान के खिलाफ मजबूत पार्टनर: सऊदी अरब और अमेरिका दोनों ईरान को अपना दुश्मन मानते हैं. ट्रंप चाहते हैं कि सऊदी मिडिल ईस्ट में ईरान को बैलेंस करे, ताकि सीरिया और लेबनान में हूती विद्रोही कंट्रोल हो सकें. MNNA और F-35 देकर ट्रंप सऊदी को इतना ताकतवर बना रहे हैं कि वो खुद ईरान से लड़ सके. सऊदी अरब सभी मुस्लिम देशों का अघोषित लीडर है.
- इसराइल के साथ सऊदी की दोस्ती कराना: ट्रंप का ड्रीम प्रोजेक्ट अब्राहम अकॉर्ड्स को बढ़ाना है. वह चाहते हैं कि सऊदी इसराइल से ऑफिशियली दोस्ती करे. पहले F-35 के लिए ये शर्त थी, लेकिन 2025 में गाजा वॉर की वजह से सऊदी मना कर रहा है. फिर भी ट्रंप उम्मीद नहीं छोड़ रहे और F-35 देकर प्रेशर बना रहे हैं कि ‘अब तुम्हारी बारी है‘.
- हथियार बेचकर अमेरिकी इंडस्ट्री का बूस्ट: सऊदी दुनिया का सबसे बड़ा अमेरिकी हथियार खरीदने वाला देश है. 2025 में 142 बिलियन डॉलर की बड़ी आर्म्स डील हुई, अब F-35 भी शामिल हैं. इससे लॉकहीड मार्टिन जैसी अमेरिकी डिफेंस कंपनियां पैसा कमाती हैं, जिससे अमेरिकी इंडस्ट्री ग्रोथ करती है. ट्रंप कहते हैं, ‘हम हथियार बेचेंगे, वो खुद अपनी सिक्योरिटी संभालेंगे, हमें कम खर्च करना पड़ेगा‘.
- तेल की कीमतों पर कंट्रोल करना: सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक है, 18% भंडारण पर कंट्रोल करता है. ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिका में पेट्रोल के दाम कम हों. साथ ही सऊदी से न्यूक्लियर एनर्जी और क्रिटिकल मिनरल्स की डील भी हो रही है.
सऊदी अरब अमेरिका के साथ एक मजबूत डिफेंस एग्रीमेंट चाहता है, जबकि ट्रम्प चाहते हैं कि सऊदी अरब उनके गाजा शांति प्रस्ताव का समर्थन करे और गाजा को फिर से बसाने में मदद भी करे. मोहम्मद बिन सलमान अपने विजन 2030 योजना के तहत सऊदी इकोनॉमी की निर्भरता तेल से कम करके टेक्नोलॉजी और नई इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहते हैं.
सवाल 4- तो फिर अमेरिका को सऊदी अरब की नजदीकियों से चिंता क्यों है?
जवाब- अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां ट्रंप के F-35 फाइटर जेट बेचने के फैसले से चिंतित हैं. उनका कहना है कि अगर यह सौदा हुआ तो चीन को इन विमानों की एडवांस तकनीक तक पहुंच मिल सकती है. पेंटागन के कई अधिकारी इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा मान रहे हैं.
सऊदी अरब और चीन के बीच पहले से डिफेंस पार्टनरशिप है. पेंटागन के तहत आने वाली डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA) की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि सऊदी को F-35 मिलने पर चीन उसके जरिए अमेरिकी स्टेल्थ तकनीक तक पहुंच बना सकता है. F-35 दुनिया का सबसे एडवांस्ड स्टील्थ फाइटर जेट है.
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक चीन लंबे समय से अमेरिकी सैन्य तकनीक की जासूसी कर उसकी नकल करता रहा है.
एक्सपर्ट्स कहना है कि अगर सऊदी और चीन संयुक्त सैन्य प्रोजेक्ट या अभ्यास करते हैं, तो चीन को इन विमानों की रडार-एवॉयडेंस, सॉफ्टवेयर सिस्टम और सेंसर तकनीक का अध्ययन करने का अवसर मिल सकता है. यही तकनीक चीन के अपने स्टेल्थ फाइटर J-20 को और मजबूत कर सकती है.
पेंटागन अधिकारियों का कहना है कि यह सौदा अमेरिका के लिए लंबी अवधि का सुरक्षा जोखिम होगा. मिडिल ईस्ट में F-35 सिर्फ इजराइल के पास है. अगर चीन को तकनीक का एक्सेस मिलता है तो वह इसराइल की सैन्य बढ़त को भी चुनौती देने वाली नई क्षमताएं बना सकता है.
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