Ramayana Teachings: श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड का प्रसंग अत्यंत प्रेरणादायक और भक्ति का सच्चा मार्ग बताने वाला है. इसमें महर्षि वशिष्ठजी अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख करते हैं. उत्तर कांड में यह वर्णन है कि जब ब्रह्माजी ने गुरू वशिष्ट को सूर्यवंश (रघुकुल) का पुरोहित बनने के लिए कहा, तो पहले उन्होंने यह जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया.
तब ब्रह्मा जी ने कहा कि “हे पुत्र! यह कार्य आगे चलकर तुम्हारे लिए बहुत शुभ होगा, क्योंकि स्वयं परमात्मा मनुष्य रूप में रघुकुल में जन्म लेंगे. यह सुनकर वशिष्ठजी ने मन में विचार किया कि यदि इसी पुरोहित धर्म के माध्यम से मुझे भगवान की सेवा करने का अवसर मिलेगा, तो इससे बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता. उन्होंने समझ लिया कि जो योग, यज्ञ, व्रत और दान के द्वारा प्राप्त होता है, वही फल यदि ईश्वर की सेवा से मिल जाए, तो यही सच्चा और सर्वाेत्तम धर्म है.
ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम ही भक्ति
वशिष्ठजी कहते हैं कि जप, तप, नियम, योग, ज्ञान, दया और तीर्थस्नान जैसे अनेक साधन केवल साधन मात्र हैं, उनका अंतिम उद्देश्य यही है कि मनुष्य के हृदय में भगवान के चरणों के प्रति प्रेम जागे. यदि उस प्रेम की प्राप्ति नहीं होती, तो बाकी सब कर्म अधूरे हैं.
वशिष्ठजी कहते हैं कि वही व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी और पुण्यवान है, जिसके हृदय में भगवान के चरणों के प्रति सच्चा प्रेम और श्रद्धा हो. अंत में वे श्रीराम से प्रार्थना करते हैं- “हे प्रभु! मुझे ऐसा वर दीजिए कि जन्म-जन्मांतर तक आपके चरणों के प्रति मेरा प्रेम कभी कम न हो.”
प्रेम और भक्ति में सच्चा धर्म
सच्चा धर्म बाहरी कर्मकांडों में नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति में है. जब हम अपने हर कार्य को ईश्वर को समर्पित कर देते हैं और उनके नाम से करते हैं, तब वही कर्म पूजा बन जाता है. वशिष्ठजी का यह उपदेश आज भी हमें यह संदेश देता है कि ज्ञान, तप, योग या दान इन सबका अंतिम फल केवल एक है.
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