फिल्म -इंस्पेक्टर झेंडे
निर्माता – ओम राउत
निर्देशक – चिन्मय मंडलेकर
कलाकार -मनोज बाजपेयी , जिम सरभ, गिरिजा ओक,सचिन खेडेकर ,भाउ कदम और अन्य
प्लेटफॉर्म -नेटफ्लिक्स
रेटिंग -तीन
inspector zende review :एक अरसे से गुमनाम नायकों की कहानियां मेकर्स को लुभा रही हैं. इस फेहरिस्त में इस शुक्रवार नेटफ्लिक्स की फिल्म इंस्पेक्टर झेंडे का नाम जुड़ गया है. इंटरपोल के मोस्ट वांटेड क्रिमिनल चार्ल्स शोभराज की कहानी को अब तक कई फिल्मों और वेब सीरीज में प्रमुखता दी गयी है लेकिन उस पर एक नहीं बल्कि दो बार कानून का शिकंजा कसने वाले सच्चे पुलिस अफसर मधुकर झेंडे को शायद ही किसी कहानी में जगह मिली थी. यह फिल्म उनके उसी साहस को सलाम करती है लेकिन हाई वोल्टेज एक्शन या थ्रिलर ड्रामा के ज़रिये नहीं बल्कि हास्य के साथ,जो इस फिल्म को खास बनाता है. फिल्म में कुछ खामियां भी रह गयी है लेकिन रियल घटनाओं में आधरित सच्चे हीरो की यह कहानी सभी को एक बार देखनी जरूर चाहिए.
पुलिस ऑफिसर झेंडे की है कहानी
यह फिल्म असल घटना से प्रेरित है तो इसकी शुरुआत भी इसी से होती है. 1986 में तिहाड़ जेल से चार्ल्स शोभराज के भाग जाने का किस्सा बेहद मशहूर है लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद फिर से उसे पकड़कर वापस तिहाड़ जेल ले जाया गया था. इस पर शायद ही कभी चर्चा हुई है. यह फिल्म उसी गुमनाम इंस्पेक्टर झेंडे की उस मिशन की कहानी है. फिल्म में चार्ल्स का नाम बदलकर कार्ल (जिम सरभ )कर दिया गया है. तिहाड़ से उसके भागने की खबर जैसे ही रेडियो पर आती है. इंस्पेक्टर झेंडे (मनोज बाजपेयी ) समझ जाता है कि उसे यह केस मिलने वाला है क्योंकि दस साल पहले उसने ही कार्ल को पकड़ा था और वैसा ही होता है.डीजीपी (सचिन खेडेकर )उसे यह मिशन देते हैं, लेकिन इंस्पेक्टर झेंडे की राह आसान नहीं है क्योंकि इन दस सालों में कार्ल मामूली चोर से इंटरपोल का मोस्ट वांटेड क्रिमिनल बन चुका है, लेकिन झेंडे के पास अभी भी संसाधन कम है और लोग भी. छह लोगों की अपनी टीम के साथ वह कार्ल को पकड़ने के लिए निकल पड़ता है. वह किस तरह से कार्ल को कानून की गिरफ्त में लाता है. यही आगे की कहानी है.
फिल्म की खूबियां और खामियां
पुलिस और अपराधी के बीच की चूहे और बिल्ली के खेल पर यह फिल्म आधारित है. जिसे फिल्म में सांप और नेवले की जंग बताया गया है. आमतौर पर इस तरह की फिल्मों थ्रिलर ट्रीटमेंट होता है ,लेकिन इंस्पेक्टर झेंडे का ट्रीटमेंट कॉमेडी के अंदाज में किया है. मनोज बाजपेयी ने प्रभात खबर के साथ अपने इंटरव्यू में यह बात बताई थी कि उन्होंने अब तक परदे पर कई बार पुलिस अधिकारी की भूमिका को निभाया है,लेकिन इंस्पेक्टर झेंडे का किरदार उन सभी से 360 डिग्री अलग है. वह स्क्रीनप्ले में भी दिखता है. झेंडे हिंदी सिनेमा के पॉपुलर कॉप ड्रामा के सारे फार्मूले को धराशायी कर देता है. फ़िल्मी पुलिस वालों की तरह अकेले आठ दस को एक पंच पर हवा में नहीं उड़ा सकता है, बल्कि कार्ल को पकड़ने में ही उसे काफी मशक्क्त करनी पड़ती है. सीनियर के मना करने के बावजूद वह दिल्ली के लोगों से मदद लेने के लिए तैयार रहता है.वह अपराधी को हर हाल में पकड़ना चाहता है भले उसे क्रेडिट मिले या ना मिले हालांकि उसमें दिलेरी की भी कमी नहीं है. लोगों को बचाने के लिए वह गन के सामने भी आने से डरता नहीं है..वह हमेशा परफेक्ट नहीं है. कई बार चूक भी जाता है,लेकिन अपनी गलतियों से उसे सीखना आता है.अपने गट फीलिंग पर भी उसका बहुत भरोसा है. किरदार से जुड़ी यह बातें फिल्म को अलहदा के साथ -साथ रियल टच भी देती हैं, फिल्म के कॉमेडी सीक्वेंस अच्छे हैं. ऋषि कपूर बनने वाला सीन हो या फिर झेंडे का डांस करते हुए कार्ल को पकड़ना. स्क्रीनप्ले में कुछ कॉमेडी सही भी नहीं बैठी है. क्लाइमेक्स में गोवा पुलिस के साथ कार्ल को खींचतान वाला सीन थोड़ा अजीब लगता है. फिल्म असल घटनाओं पर है. चार्ल्स शोभराज को कार्ल दिखाने की बात अखरती है. फिल्म के दूसरे पहलुओं में बैकग्राउंड म्यूजिक औसत रह गया है,जिस वजह से यह फिल्म में वह प्रभाव नहीं डाल पाया है, जो कहानी की जरुरत थी.सिनेमेटोग्राफी 80 के दशक की मुंबई और गोवा को दिखाने में कामयाब रही है.फिल्म के आखिर में रियल पुलिस ऑफिसर झेंडे को दिखाना सुखद है.
मनोज बाजपेयी फिर शानदार
मनोज बाजपेयी ने एक बार फिर अभिनेता के तौर पर अपनी छाप छोड़ी है. उन्होंने अलहदा ढंग से अपने किरदार को जिया है. स्क्रीनप्ले की खामियों को वह अपने अभिनय से संभालते हैं. यह कहना गलत नहीं होगा.गिरिजा ओक और सचिन खेडेकर ने अपने सीमित स्पेस में छाप छोड़ी है. जिम सरभ चार्ल्स शोभराज के लुक के साथ न्याय करते हैं ,लेकिन उनके किरदार पर स्क्रीनप्ले में थोड़ा और काम करने की ज़रूरत थी. बाकी के किरदारों में भाऊ कदम याद रह जाते हैं.
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