‘संविधान में कोई ‘सुप्रीम’ नहीं’, राष्ट्रपति-राज्यपाल के लिए समयसीमा निर्धारण मुद्दे पर केंद्र का जवाब

Supreme Court News: केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए किसी विधेयक पर फैसला लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा समयसीमा निर्धारित किए जाने का विरोध किया है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में केंद्र सरकार ने कहा है कि संविधान के मुताबिक कोई ‘सुप्रीम’ नहीं’ है। सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा नहीं तय कर सकता। बता दें कि गत 22 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी करके केंद्र सरकार को मामले में अपना जवाब पेश करने के लिए कहा था।

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केंद्र सरकार ने अपने जवाब में क्या कहा?

  • सरकार ने कोर्ट में दाखिल किए गए जवाब में संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था के हर अंग के लिए किए गए ‘शक्तियों के बंटवारे’ का उल्लेख किया है। सरकार का कहना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर अंग के लिए चेक एंड बैलेंस रखा गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग अपने आप में ‘सुप्रीम’ नहीं है।
  • सरकार ने कहा है कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की थी।
  • राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान के तहत मिले अधिकार कार्यपालिका की वर्किंग के दायरे में आते हैं। न्यायपालिका इसमें किसी भी तरह का दखल नहीं दे सकती।
  • आर्टिकल 200 के तहत बिल पर फैसला लेने के राज्यपाल के अधिकार की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। जब किसी बिल को राज्यपाल को भेज दिया जाता है तो राज्यपाल के पास 4 विकल्प होते है- वह चाहे बिल को मंजूरी दे दे/मंजूरी देने से इंकार कर दे/राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे/बिल को वापस लौटा दे। राज्यपाल को इन 4 विकल्पों के इस्तेमाल का विशेषाधिकार है।
  • संविधान ने जानबूझकर राज्यपाल के लिए इन शक्तियों के इस्तेमाल को लेकर कोई समयसीमा तय नहीं की, ताकि सवैंधानिक और राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से इस प्रकिया को लचीला रखा जा सके। कोर्ट अपनी ओर से राज्यपाल की फैसला लेने की कोई समयसीमा या तरीका तय नहीं कर सकता। यह संविधान निर्माताओं की भावना के खिलाफ होगा।
  • आर्टिकल 142 का दायरा बड़ा होते हुए भी यह कोई ऐसी न्यायिक शक्ति नहीं है, जो संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार कर सके। इसका इस्तेमाल करके कोर्ट पेंडिंग बिलों को अपनी ओर से मंजूरी नहीं दे सकता।
  • न्यायपालिका व्यवस्था के किसी दूसरे अंग के अधिकार क्षेत्र पर अपना दावा नही कर सकती। इस तरह का कोई भी कदम संवैधानिक संतुलन को कमजोर करेगा।
  • लोकतंत्र के किसी एक अंग की कथित विफलता या निष्क्रियता किसी दूसरे अंग को ऐसी शक्तियां ग्रहण करने का अधिकार नहीं देती जो संविधान ने उसे प्रदान नहीं की हैं। अगर लोकतंत्र के एक अंग को दूसरे अंग के शक्तियां इस्तेमाल करने की इजाजत दी जाती है, तो इसका नतीजा एक संवैधानिक अव्यवस्था होगी, जिसकी परिकल्पना संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी।

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क्या है सुप्रीम कोर्ट में आया मामला?

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए किसी बिल को मंजूरी देने के लिए समयसीमा निर्धारित की गई थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंशियल रेफरेन्स भेजा और 14 विषयों पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। इन्हीं विषयों पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ का गठन किया था। पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब दाखिल करने को कहा था। मंगलवार को प्रेसिडेंशियल रेफरेन्स पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है।

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सुप्रीम कोर्ट ने समयसीमा निर्धारित करने का फैसला 8 अप्रैल 2025 को सुनाया था। संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 111 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों को मिली शक्तियों पर तमिलनाडु, पंजाब और अन्य राज्यों ने सवाल उठाए जा रहे थे। तमिलनाडु की सरकार ने साल 2023 में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि तमिलनाड़ु में साल 2020 से 2023 तक 12 विधेयक पारित हुए, लेकिन राज्यपाल RN रवि ने विधेयकों पर फैसला लंबित रख लिया था। कुछ विधेयकों को राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास भेज दिया था।

याचिका में कहा गया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयक मंजूर नहीं किए गए तो क्या विधेयक को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं है या निर्धारित नहीं की जा सकती। यह सवाल उठाते हुए याचिका दायर की गई थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाते हुए 3 महीने की समयसीमा निर्धारित कर दी थी। इसी फैसले पर राष्ट्रपति ने रेफरेन्स मांगा है।

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