Asim Munir vs Zardari: पाकिस्तान में एक बार सियासी तख्तापलट की तैयारी चल रही है। जुलाई का महीना पाकिस्तान के लिए सियासी तौर पर काफी बुरा रहा है। 5 जुलाई 1977 को पहली बार पाकिस्तान में सेना प्रमुख जिया उल हक ने प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को हटाकर खुद राष्ट्रपति बन गए थे। इसके बाद करीब 10 साल बाद वहां पर चुनाव करवाए गए। ऐसे में लग रहा है कि जुलाई का महीना एक बार फिर पाकिस्तान के लिए नासूर बनने वाला है।
वर्तमान राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और सेना प्रमुख आसिम मुनीर के बीच कुछ खटपट की खबरें सामने आ रही हैं। इसके बाद मुनीर का अमेरिका दौरा इस पर मुहर भी लगा रहा है। ट्रंप शहबाज शरीफ की बजाय मुनीर से ज्यादा बात कर रहे हैं। ऐसे में कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता है कि इस तख्तापलट केे पीछे अमेरिका का हाथ नहीं है। उधर जरदारी के बेटे और पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने कहा कि वह हाफिद सईद और मसूद अजहर को पाकिस्तान को सौंप सकते हैं अगर भारत हमें सपोर्ट करेगा तो। उनके इस बयान के बाद पाकिस्तान में हलचल मच गई। इसके अलावा उन्होंने आसिम मुनीर की तीखी आलोचना भी की।
भुट्टो ने की मुनीर की आलोचना
पाकिस्तान मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो मुनीर जरदारी को पद से हटाकर खुद राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। इसके लिए अगर जरदारी खुद पद छोड़ देते हैं तो यह सामान्य लगेगा लेकिन अगर पद नहीं छोड़ते हैं तो सेना तख्तापलट कर सकती है। इन सब के बाद बिलावल भुट्टो जरदारी पर भड़के हुए हैं। पाकिस्तान की राजनीति के जानकारों की मानें तो मुनीर के लिए सबसे बड़ी परेशानी पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान हैं। जोकि फिलहाल जेल में बंद हैं। शरीफ परिवार मुनीर के संग कदम बढ़ाने को मजबूर है क्योंकि बगावत की एक चिंगारी पूरे परिवार को जेल में पहुंचा सकती है। उदाहरण हम सभी के सामने है इमरान खान।
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ट्र्ंप-मुनीर गठजोड़
एक राजनीति विश्लेषक की मानें तो मुनीर की महत्वाकांक्षा राष्ट्रपति बनने की है। इसके लिए वह अमेरिका का सहारा ले रहा है। वहीं ट्रंप बिजनेस के लिए पूरी दुनिया में हायतौबा मचा रहे हैं। ऐसे में बिटकॉइन के लिए उसे पाकिस्तान सबसे मुफीद जगह लग रही है। इसके लिए वह मुनीर को मोहरा बनाने चाहते हैं और मुनीर पाकिस्तान के राष्ट्रपति। वहीं दूसरी ओर एक और बात सामने आई है कि जरदारी चीन समर्थक नेता हैं। ऐसे में अमेरिका नहीं चाहता कि चीन से नजदीकी वाला कोई नेता सत्ता में रहे, इसलिए भी जरदारी का जाना तय माना जा रहा है।
पाकिसतान में सेना अक्सर विदेशी हस्तक्षेप के जरिए तख्तापलट करती रही है। ऐसे में यह पहली बार नहीं होगा। इससे पहले 1958, 1977 और 1999 में भी तख्तापलट हो चुका है।
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