लोगों को नए प्रेशर जोन में किस तरह धकेल रहा है सोशल मीडिया?

Bharat Ek Soch: पूरी दुनिया में गंभीरता से इस बात पर बहस चल रही है कि विकास की रफ्तार तेज करने के लिए एक इंसान को रोजाना कितने घंटे काम करना चाहिए। हफ्ते में कितने घंटे, महीने में कितने घंटे। भारत को 2047 तक विकसित देशों की कतार में खड़ा करने के लिए कोई हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दे रहा है, तो कोई 90 घंटे। आज की तारीख में दुनिया के सामने, देश के सामने, समाज के सामने एक दूसरी बड़ी समस्या दिखाई दे रही है। जो हमारे समाज के एक बड़े वर्ग की मानसिक सेहत को प्रभावित कर रही है। जिसके भंवरजाल में समाज के बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी डूबते जा रहे हैं। देश की उत्पादकता प्रभावित हो रही है। कारखानों से दफ्तरों तक की कार्यक्षमता भी प्रभावित हो रही है।

हम बात कर रहे हैं सोशल मीडिया की। उसके सम्मोहन की, उसके नकारात्मक असर की। एक आंकड़े के मुताबिक, हमारे देश में करीब 100 करोड़ स्मार्टफोन यूजर्स हैं। फेसबुक पर 37 करोड़ से अधिक तो इंस्टाग्राम पर 30 करोड़ से अधिक अकाउंट हैं। हमारे देश में एक आदमी रोजाना पांच से साढ़े पांच घंटे स्मार्टफोन की स्क्रीन निहारने में खर्च करता है। इसमें कोई वीकली ऑफ नहीं, कोई छुट्टी नहीं। मतलब, एक आदमी दफ्तर में हफ्ते में 48 घंटे काम करता है। वही आदमी हफ्ते में 35 से 38 घंटे स्मार्टफोन देखने में खर्च करता है।

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इसमें भी बड़ा समय सोशल मीडिया पर रील देखने या दूसरों की फिल्टर जिंदगी देखने में लगाता है। जरा हिसाब लगाइए एक शख्स अपने 24 घंटे में से रोजाना पांच घंटे स्मार्टफोन और सोशल मीडिया पर खर्च करने के लिए कहां-कहां समझौता कर रहा होगा? ऐसे में आज समझने की कोशिश करेंगे कि हमेशा ऑनलाइन रहने का दबाव हमें किस तरह अकेला बनाता जा रहा है? डिजिटल दुनिया किस तरह हर वक्त ऑनलाइन बने रहने की अघोषित जिम्मेदारी बन गई है? सोशल मीडिया का दबाव हमें किस तरह नकलची बना रहा है? हमारे व्यवहार को प्रभावित कर रहा है? इंसान को घर, परिवार, दफ्तर और समाज में अकेला बनाता जा रहा है? बच्चों की पढ़ाई, भाषा, सेहत और संस्कार पर किस तरह सोशल मीडिया नकारात्मक असर डाल रहा है। आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।

सोशल मीडिया या ‘लापतागंज’ 

पिछले दो दशकों में हर इंसान की जिंदगी में सबसे अधिक दखल तकनीक का हुआ है। 4G और 5G इंटरनेट ने घर और दफ्तर के बीच का फासला खत्म कर दिया है। दफ्तर में कर्मचारी शारीरिक रूप से मौजूद होता है और बाकी समय डिजिटली एक्टिव रहता है। घर में रहते हुए भी वो दफ्तर के साथियों से Online जुड़ा रहता है। ऐसे में Online आनेवाली हर समस्या को सुलझाने, हर कॉल और मैसेज का जवाब देने का दबाव हमेशा बना रहता है।

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मान लीजिए किसी ने Whatsapp पर मैसेज भेजा। डबल टिक दिखते ही सामने वाले ने समझ लिया, मैसेज पढ़ा जा चुका है। उसे फौरन मैसेज के जवाब का इंतजार होता है। जवाब देना इसलिए जरूरी होता है क्योंकि ऑनलाइन जवाब देने को माइक्रो परफॉर्मेंस से जोड़ कर देखा जाता है या लगातार Online रहते हुए हम अपनी छवि सुधारना चाहते हैं या कहें माइक्रो परफॉर्मेंस बेहतर करने की कोशिश कर रहे होते हैं। हर मैसेज का जवाब देने की कोशिश में इंसान समय से पहले ही मानसिक रूप से थकता जा रहा है, 24×7 दफ्तर लेकर चल रहा है। Online रिश्तों को लेकर चल रहा है। इस Online बने रहने के दबाव में ज्यादातर लोग खुद में ही लापता होते जा रहे हैं।

हर किसी को तय करना होगा समय 

Online बने रहने का दबाव ही है कि ज्यादातर युवा 35-40 की उम्र में ही जरूरत से ज्यादा मानसिक रूप से थक जाते हैं। वो नौकरी को टाटा बाय-बाय करने के बारे में गंभीरता से सोचने लगते हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी की मानसिक सेहत को दुरुस्त या कहें तरोताजा रखने के लिए बहुत जरूरी है- एक ऐसे डिजिटल संस्कार को विकसित करने की, जिसमें हर शख्स तय करे कि उसे 24 घंटे में कितना समय Online रहना है और कितना Offline। आज की तारीख में ज्यादातर नौकरियां ऐसी हैं- जिसमें अधिक से अधिक समय तक Online जुड़े रहने की दरकार है। ऐसे में कंपनियों की भी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वो अपने हमेशा Online रहने के लिए मजबूर मैनेजरों को ब्रेक कैसे दें?

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क्या साल या दो-तीन साल के अंतराल पर उन्हें 10-15 दिन पूरी तरह से Offline होने का मौका नहीं दिया जा सकता है? जिससे वो अपनी मानसिक थकान मिटा सकें। खुद को रिचार्ज कर सकें, खुद से साक्षात्कार कर सकें क्योंकि, बदलावों को रिवर्स करते हुए पुराने दौर में तो ले जाना संभव नहीं है। लेकिन, हमेशा Online बने रहने के प्रेशर के बीच मानसिक सेहत दुरुस्त रखने का रास्ता जरूर निकाला जा सकता है। दफ्तर का दबाव, पढ़ाई का प्रेशर, कुछ नया देखने और जानने की चाह में फिर 6 इंच के स्मार्टफोन के संसार में गोता लगाने लगते हैं। जहां सोशल मीडिया लोगों को एक नए तरह के दबाव जोन में लेकर जाता है।

एक दिन यानी 24 घंटे में 86,400 सेकंड होते हैं। एक घंटे में 3600 सेकंड। कोई शख्स अपने 86,400 सेकेंड के पूरे दिन में से कुछ पल की तस्वीरें फिल्टर के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है। लोगों को बताने की कोशिश करता है कि उसकी जिंदगी कितनी खुशहाल है, वो अमेरिका घूम रहा है। पेरिस घूम रहा है। बैंकॉक, मलेशिया, सिंगापुर के टूर पर गया है। जो विदेश जाने का खर्चा नहीं उठा पाते, वो देश के भीतर ही कहीं घूम-फिर आते हैं। इसमें निजी तौर पर घूमने-फिरने या वक्त बिताने से अधिक दवाब सोशल मीडिया का काम कर रहा है।

गंवा रहे मानसिक शांति और कीमती समय 

दरअसल, दूसरों की सोशल मीडिया वाली REEL लाइफ देखकर लोग वैसी ही जिंदगी की कल्पना करने लगते हैं। उन्हें अपनी जिंदगी खराब और दूसरों की बेहतर लगने लगती है। दरअसल, सोशल मीडिया समाज के एक बड़े वर्ग को हीनभावना से ग्रस्त और असंतुष्ट बनाता जा रहा है। ये एक ऐसी मृगतृष्णा है- जिसमें लोगों को रियल लाइफ की चुनौतियां तो नहीं दिखाई देतीं। बेहतर जिंदगी हासिल करने की जद्दोजहद के पीछे का कड़ा संघर्ष दिखाई नहीं देता। संघर्षों से जूझने का रास्ता दिखाई नहीं देता। बस फिल्टर के साथ दूसरों की 24 घंटे में से कुछ सेकेंड की रील लाइफ के लम्हे दिखाई देते हैं। दूसरों की REEL लाइफ देखने के चक्कर में हमारी बड़ी आबादी और एक्टिव वर्कफोर्स अपनी मानसिक शांति और कीमती समय दोनों गंवा रही है। इतना ही नहीं, सोशल मीडिया की दुनिया में रोजाना घंटों बिताना परिवार नाम की संस्था को भी बहुत हद तक प्रभावित कर रहा है।

सोशल मीडिया ने समाज के भीतर दिखावा और तुलना की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है। रिश्तों को भी दो तरह का बना दिया है। एक रिश्ता को रील और पोस्ट में दुनिया के सामने बहुत खूबसूरती से पेश किया गया..लेकिन, उसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है। मतलब, सोशल मीडिया बड़ी आबादी को दोहरी जिंदगी, बनावटी रिश्ते और दोहरे चरित्र की ओर तेजी से धकेल रहा है। कहा जाता है कि Past is History & Future is Mystery…हम Present में क्या करते हैं, इसी पर Future निर्भर करता है, लेकिन, एक बड़ा सच ये भी है कि हमारे वर्तमान का बड़ा समय सोशल मीडिया में दूसरों की फिल्टर जिंदगी, काल्पनिक रील देखने में खर्च हो रहा है।

रिश्तों में आ रही कड़वाहट 

इस Addiction में इंसान धीरे-धीरे रियल वर्ल्ड से कटने लगता है। दफ्तर में भी वो अकेला होता है, दोस्तों के बीच भी, परिवार के बीच भी। इसी अकेलापन, असंतुष्टि और एक्साइटमेंट की खोज में Extramarital affairs के लिए जगह बनने लगती है। पति-पत्नी के रिश्तों में अविश्वास और हत्या तक की नौबत आने लगी है। सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव बच्चों की मानसिक सेहत, पढ़ाई-लिखाई, बोलचाल और आदतों पर भी पड़ रहा है। दुनियाभर में इस बात पर गंभीरता से मंथन चल रहा है कि बच्चों को सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों से कैसे बचाया जाए?

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स्मार्टफोन हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। अगर कुछ देर के लिए स्मार्टफोन इधर-उधर हो जाए तो जिंदगी अधूरी लगने लगती है। बिना स्मार्टफोन के लोग हैरान-परेशान और बेचैन हो जाते हैं, जैसे जिंदगी की सबसे जरूरी और कीमती चीज लापता हो गई। सोशल मीडिया एक ऐसे नशा की तरह लोगों की जिंदगी में घुल चुका है– जिससे छुटकारा आसान नहीं है…जो बच्चों का बचपन, उनकी सेहत, उनकी पढ़ाई-लिखी…उनके दोस्त सब छीन रहा है।

माता-पिता के बीच भी बैठा बच्चा स्मार्टफोन में खुशियां तलाश रहा होता है। सोशल मीडिया की भाषा अपना रहा होता है और उसी वर्चुअल वर्ल्ड में किसी Influencers को अपना हीरो चुन लेता है। स्मार्टफोन और सोशल मीडिया दुनियाभर की जानकारी तो दे रहे हैं…लेकिन, रियल वर्ल्ड की चुनौतियों से लड़ने का ना तो हुनर सिखा रहे हैं और ना ही जज्बा पैदा कर रहा है। इसी तरह वर्चुअल वर्ल्ड में दोस्त-मित्र जोड़ने के चक्कर में रियल वर्ल्ड के दोस्त कम होते जा रहे हैं। भावनात्मक लगाव और सरोकारों के लिए जगह कम होती जा रही है।

बढ़ रहा है सोशल मीडिया का दखल 

सामाजिक मेलजोल के छोटे-मोटे मौके दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं। सामाजिक व्यवहार निभाने से लेकर संवाद तक में सोशल मीडिया का दखल बढ़ता जा रहा है…जो भावनात्क रूप से लोगों को लगातार कमजोर और अकेला बनाता जा रहा है। ऐसे में आज की तारीख में तीन सवालों पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है। एक, हमेशा Online बने रहने के दवाब को किस तरह कम किया जाए। दूसरा, सोशल मीडिया के इस्तेमाल को कम कर पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक मेलजोल को किस तरह बढ़ाया जाए और तीसरा, बच्चों को वर्चुअल वर्ल्ड के नकारात्मक प्रभावों से कैसे बचाया जाए क्योंकि, सब कुछ इंसान से हैं, इंसान के लिए है, लेकिन जब हमेशा Online बने रहने की आदत और मजबूरी इंसान के मानसिक संतुलन को ही Offline करने लगे…उसे खुद से, परिवार से, समाज से, काम से लापता करने लगे…तो फिर दायरा तय करना जरूरी हो जाता है।

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