भारत ने अपने दो बड़े नेताओं जेबी कृपालानी और एमएस नंबूरीपाद को 19 मार्च को ही खो दिया था। 19 मार्च 1982 को प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता जेबी कृपालानी का निधन हुआ था। वहीं, 19 मार्च 1998 को भारत के पहले कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री और केरल के प्रमुख नेता ईएमएस नंबूदरीपाद का निधन हुआ था। आइए जानते हैं इन दोनों नेताओं का क्या रहा है इतिहास…
1982 में जेबी कृपालानी का हुआ था निधन
19 मार्च 1982 को प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता जेबी कृपालानी का निधन हो गया था। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान दिया। उनकी मृत्यु स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में एक बड़ी क्षति थी।
कृपलानी ने नेहरू को पीएम बनाने में की थी मदद
वक्त था 1946 का जब अंग्रेजों ने आजादी से एक साल पहले ही भारतीय हाथों में सत्ता दे दी थी। भारत में अंतरिम सरकार बननी थी। तय हुआ था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा। उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे, जो पिछले 6 साल से इस पद पर बने हुए थे। महात्मा गांधी ने 20 अप्रैल 1946 को मौलाना आजाद को पत्र लिखकर कहा कि वे एक वक्तव्य जारी करें कि अब वह अध्यक्ष पद पर बने नहीं रहना चाहते हैं। इसके बाद तय हुआ कि 29 अप्रैल 1946 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाएगा, जो अंतरिम सरकार में भारत का प्रधानमंत्री बनेगा।
कृपलानी ने तैयार किया था नेहरू के नाम का प्रस्ताव
उस समय कृपलानी पार्टी के महासचिव थे। परपंरा के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती थीं और 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था। बची तीन कमेटियों ने आचार्य जेबी कृपलानी और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया था। किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया था। लेकिन महात्मा गांधी नेहरू को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, कृपलानी समझ गए कि गांधी क्या चाहते हैं। इसलिए उन्होंने नया प्रस्ताव तैयार कर नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया। इसके बाद अध्यक्ष पद के लिए दो नाम आमने सामने थे। एक जवाहर लाल नेहरू और दूसरे सरदार पटेल। लेकिन, अंतिम चर्चा में गांधीजी ने पटेल को भी राजी कर लिया कि वो अपना नाम वापस ले लें। इसके बाद कृपलानी ने ऐलान किया कि नेहरू को निर्विरोध अध्यक्ष चुना जाता है।
जेबी कृपलानी को चुना गया था कांग्रेस अध्यक्ष
जब अध्यक्ष होने के नाते नेहरू का नाम पीएम पद के लिए चला गया तो अगला अध्यक्ष चुना जाना था। इसके बाद जेबी कृपलानी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। लेकिन, एक साल बाद ही सरकार और संगठन के बीच दूरियां बढ़ती गईं। कांग्रेस का अध्यक्ष बनना उनके लिए गौरव की बात थी। लेकिन, सरकार में बैठे कांग्रेस नेताओं की उपेक्षा से उनको निराशा हुई। रामबहादुर राय अपनी किताब ‘शाश्वत विद्रोही राजनेता आचार्य जेबी कृपलानी’ में उनके हवाले से लिखा था कि उनको सबसे ज्यादा निराशा सरदार पटेल से हुई। नेहरू और पटेल दोनों सरकार के नीतिगत मामलों में कांग्रेस अध्यक्ष से कोई सलाह नहीं लेते थे। इसलिए संबंध तनाव पूर्ण हो गए थे। नेहरू और पटेल की देखादेखी दूसरे मंत्री भी कांग्रेस अध्यक्ष को महत्व नहीं देते थे। यही कारण था कि जेबी कृपलानी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और अपनी नई पार्टी बनाई।
जेबी कृपलानी ने नेहरू के खिलाफ पेश किया था अविश्वास प्रस्ताव
इतिहास में आचार्य कृपलानी का नाम इसलिए भी लिया जाता है क्योंकि वह पहले व्यक्ति थे जो पंडित नेहरू के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे।इससे पहले कभी किसी विपक्षी नेता ने इस बारे में सोचा तक नहीं था। इस अविश्वास प्रस्ताव को संसद में आचार्य कृपलानी ने चीन का युद्ध हारने के बाद पेश किया था। हालांकि, कांग्रेस का बहुमत होने के नाते वो प्रस्ताव गिर गया था, लेकिन सांकेतिक तौर पर इसका असर काफी गहरा था।
जब पहली बार गांधीजी से मिले थे जेबी कृपलानी
तारीख थी 15 अप्रैल 1917 रात के करीब एक बजे बिहार के मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर पटना से आई एक ट्रेन रूकी थी, जिसमें महात्मा गांधी सवार थे। गांधी के स्वागत के लिए आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी (जेबी कृपलानी) अपने छात्रों के साथ पहले से ही आरती की थाली और एक लालटेन लेकर स्टेशन पर मौजूद थे। उस समय कृपलानी मुजफ्फरपुर के भूमिहार-ब्राह्मण कॉलेज (अब एलएस कॉलेज) के प्रोफेसर थे। महात्मा गांधी और जेबी कृपलानी की ये पहली मुलाकात थी। गांधी से मिलने के बाद कृपलानी इतने प्रभावित हुए कि धीरे-धीरे उनका झुकाव स्वतंत्रता संग्राम की तरफ होने लगा। चंपारण सत्याग्रह में कृपलानी ने गांधी जी के करीबी सहयोगी के रूप में काम किया। उन्होंने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया। इसके लिए उन्होंने अपनी प्रोफेसर की नौकरी भी छोड़ दी थी।
1998 में ईएमएस नंबूदरीपाद का निधन
अब बात करते हैं ईएमएस नंबूरीपाद की। 19 मार्च 1998 को भारत के पहले कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री और केरल के प्रमुख नेता ईएमएस नंबूदरीपाद का निधन हुआ था। वे भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे और 1957 में केरल के पहले मुख्यमंत्री बने थे।
नंबूदरीपाद उपनाम कैसे मिला?
देश के सबसे बड़े कम्युनिस्ट नेताओं में शामिल एलमकुलम मनक्कल शंकरन यानी ईएमएस का जन्म 13 जून 1909 को पेरिन्थालमन्ना (वर्तमान में केरल के मलप्पुरम जिले) के पास एक छोटे से गांव में हुआ था। उन्होंने शुरुआती शिक्षा घर पर ही हासिल की थी। इसके बाद वे नंबूदरी योगक्षेम सभा द्वारा स्थापित एक स्कूल में गए। ये सभा एक समाज सुधारक सभा थी, जो आधुनिक शिक्षा की पक्षधर और जाति व्यवस्था से होने वाले अन्याय की आलोचक थी। इसी स्कूल में उनको नंबूदरीपाद का उपनाम मिला और उनका नाम ईएमएस नंबूदरीपाद हो गया।
आजादी की लड़ाई में जेल गए थे नंबूदरीपाद
1932 में नंबूदरीपाद महात्मा गांधी के अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़ गए थे। इसके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने एक साल के लिए जेल में डाल दिया था। इसके बाद 1934 में वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए लेकिन जल्द ही उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) जॉइन कर ली। वे 1941 में सीपीआई की सेंट्रल कमेटी के लिए चुने गए और 1951 में पार्टी की पोलितब्यूरो के सदस्य बने।
केरल की साक्षरता दर में नंबूदरीपाद का अहम योगदान
नंबूदरीपाद न सिर्फ एक विचारक और विश्लेषक बल्कि एक जननेता भी थे। उन्होंने मार्क्सवादी विचारों को जमीन हकीकत देने का काम किया था। 1957 में उनके नेतृत्व में बनी सरकार रिपब्लिक ऑफ सान मैरिनो के बाद विश्व में दूसरी ऐसी कम्युनिस्ट सरकार थी जो बहुदलीय चुनावी लोकतंत्र में चुनी गई थी। नंबूदरीपाद की सरकार देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी और वो पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। इस सरकार द्वारा भूमि और शिक्षा क्षेत्र में किए गए सुधारों सहित अन्य सुधारों से तत्कालीन केंद्र सरकार इतना हिल गई थी कि उनकी सरकार को 1959 में संविधान की धारा 356 का दुरुपयोग करते हुए बर्खास्त कर दिया गया था। इसके बाद 1967 में फिर से वे केरल के मुख्यमंत्री बने। केरल में अगर आज सबसे अधिक साक्षरता दर है तो इसमें नंबूदरीपाद की पहली सरकार द्वारा किए गए शिक्षा सुधारों की अहम भूमिका है। केरल में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए उनकी सरकार ने कानून बनाया था।
जीवन के अंतिम पड़ाव में भी राजनीति में सक्रिय थे
नंबूदरीपाद 1962 में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने थे। लेकिन 1964 में पार्टी सीपीआई और सीपीएम नाम से दो धड़ों में विभाजित हो गई, जिसके बाद वह सीपीएम में शामिल हो गए। 1977 में वे सीपीएम के महासचिव बने और 15 साल तक इस पद पर रहे। 1998 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने अपनी पार्टी का प्रचार किया था।
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Mar 19, 2025 02:19
Edited By
Satyadev Kumar
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