Premanand Puri Ji Maharaj head of Panchayat Niranjani Akhara says that the Naga pind daan tradition

Naga Sadhu: इंसान का शरीर जब शांत होता है, आत्मा का परमात्मा में मिलन होता है तब हिंदू मान्यताओं के अनुसार जीव का पिंडदान किया जाता है. वहीं संन्यासी और नागा संन्यासियों की बात करें तो यह लोग जीते जी खुद का पिंडदान (Pind Daan) करते हैं. आइए आपको बताते हैं क्या होता है पिंडदान का महत्व और क्यों नागा संन्यासी करते हैं जीते जी पिंडदान.

पिंडदान शब्द कहां से आया

पिंडदान शब्द गर्भाधान संस्कार से आया है. गर्भाधान संस्कार तब होता है जब मां के गर्भ में बच्चा आता है, वो बच्चा सबसे पहले पिंड के रूप में आता है और उसमें जब जीव आने को होता है तब वह पिंड के रूप में आता है. जीव पिंड के रूप में ही मां के गर्भ में प्रवेश करता है और जब व्यक्ति का देहावसान हो जाता है तो उसको बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है तब उसके परिवार के लोग उसी पिंड का पिंडदान करते हैं.

क्यों होता है पिंडदान

पंचायती निरंजनी अखाड़ा प्रमुख महामंडलेश्वर प्रेमानंद पुरी जी महाराज (Premanand Puri Ji Maharaj) कहते हैं कि, जीव जो पिंड के रूप में मां के गर्भ में आया था. ऐसा माना जाता है कि जब जीव का पिंडदान होता है तो जीव के मां के गर्भ में आने और परमात्मा के पास जाने तक की यात्रा को पिंडदान यात्रा कहते हैं. परिवार के लोग जब पिंडदान करते हैं तो ऐसा माना जाता है कि उसकी मुक्ति हो गई.

नागा साधु या संन्यासी क्यों खुद करते हैं अपना पिंडदान

पंचायती निरंजनी अखाड़ा प्रमुख महामंडलेश्वर प्रेमानंद पुरी जी महाराज कहते हैं कि, सन्यास में आने का एकमात्र मतलब है न्यासों से वृत्ति और न्यासों से वृत्ति के लिए एकात्म होना आवश्यक है और एकात्म होने के बाद फिर हमारा कोई सगा संबंधी नहीं होता है. फिर संसार का हर जीव हमारा अपना होता है और संसार के हर जीव को हम अपना मानते हैं और हम अपना जीवन जीते हैं.  प्रेमानंद पुरी जी महाराज कहते हैं कि संन्यासी हमेशा स्वयं का इसीलिए पिंडदान करता है क्योंकि जब कोई संन्यास लेता है तो यह मान लिया जाता है कि हमारा नया जन्म हो गया और जब नया जन्म हो गया तो जब हमारी मृत्यु होगी तभी तो हमारा नया जन्म होगा. संन्यास की परंपरा में नया जन्म प्राप्त करने के पहले हम अपने पुराने जन्म का खुद से पिंडदान करते हैं तभी हम संन्यासी बनते हैं और उसके बाद ही नागा बनते हैं.

पिंडदान में गया का क्या है महत्व

हिंदू धर्म में गया में पिंडदान की एक अलग मान्यता है. इसे लेकर प्रेमानंद पुरी जी महाराज कहते हैं कि, गया में पिंडदान इसलिए किया जाता है क्योंकि वहां एक फल्गु नदी है,  उसका बड़ा महत्व है. हालांकि मां गंगा और फल्गु नदी का महत्व बराबर का होता है. फल्गु के बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि यहां पर कामधेनु को पकड़कर मुक्ति हो जाती है, वहीं उनका कहना है कि गंगा में जब पिंडदान होते हैं तो वहां कहा जाता है कि यह कामधेनु स्वरूप है, गंगा भी मोक्ष दायनी है और बैकुंठ का द्वारा मिलता है. इसलिए मां गंगा के तट पर भी लोग पिंडदान करते हैं. वहीं गया को लेकर के शास्त्रों में एक अलग विशेष स्थान दिया गया है.

भगवान श्रीकृष्ण के पूर्वजों का पिंडदान हुआ था उज्जैन में

Naga Sadhu: प्रेमानंद पुरी जी महाराज कहते हैं कि, मान्यता सभी की बराबर है जहां भी हमारे तीर्थ बने वह तीर्थ देश की स्थितियों के हिसाब से बने. पुराने समय में लोग बैलगाड़ियों से जाते थे, पैदल जाते थे तो इसलिए हर क्षेत्र में एक अपना तीर्थ था.हर जगह एक अपनी पवित्र नदी है और उस नदी का उतना महत्व है जितना फाल्गुन नदी का है. उन्होंने बताया कि भगवान श्री कृष्ण के पूर्वजों का पिंडदान उज्जैन में हुआ था. उज्जैन में सिद्ध वाट नाम की जगह पर भगवान श्री कृष्ण के सारे पूर्वजों का पिंडदान हुआ. उन्होंने कहा  क्षिप्रा को भी मोक्षदायनी कहीं जाती है. जहां-जहां हमारे तीर्थ हैं वहां पर कोई ना कोई पवित्र नदी है.

क्या पिंडदान के बाद लोग 84 लाख योनियों में नहीं जाते

महाराज जी कहते हैं कि, पिंडदान से जीव को मुक्ति मिल जाती है और उसका 84 लाख योनियों में भटकना बंद हो जाता है. जिसका क्रिया विधान सब सही से हुआ उनका कहीं पुनर्जन्म हमने नहीं सुना है. आज तक अलग-अलग देश मिलाकर लगभग 40 देश में भ्रमण किया, लगभग 4 लाख किलोमीटर की यात्रा की पर आज तक कभी किसी पुनर्जन्म की बात नहीं सुनी. उन्होंने कहा हमारे सनातन की जो परंपरा है वह इतनी शास्त्रयुक्त है और इतनी वैज्ञानिक है. क्योंकि हमारे शास्त्रों को ऋषि मुनि वैज्ञानिकों ने शोध करके इसे बनाया है और उन मंत्रों से जब क्रिया की जाती है तो जीव की मुक्ति हो जाती है.

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