कानपुर। बढ़ते प्रदूषण की मार झेल रही दिल्ली को बचाने के लिए आइआइटी कानपुर तैयार है। आइआइटी निदेशक प्रो. मणीन्द्र अग्रवाल ने बताया कि कृत्रिम वर्षा कराने के लिए तकनीकी तौर पर आइआइटी टीम पूरी तरह तैयार है। हमारे पास कृत्रिम वर्षा कराने लायक विमान और तकनीक है। दिल्ली सरकार कृत्रिम वर्षा करवाना चाहती है तो उसको नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) और गृह मंत्रालय की अनुमति के साथ संपर्क करना होगा।
आवश्यक अनुमति के साथ ही दिल्ली के वायुमंडल में बादलों की मौजूदगी भी अनिवार्य है। उन्होंने बताया कि आइआइटी की कृत्रिम वर्षा तकनीक में ड्रोन सिस्टम का प्रयोग नहीं, बल्कि अमेरिकी विमान सेसना का इस्तेमाल किया गया है। एक बार वर्षा कराने पर 100 वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग एक करोड़ रुपये का खर्च आएगा। जहां पर वर्षा कराई जानी है, वहां के वातावरण में पहले से कितने बादल है। उन्होंने बताया कि उनमें आर्द्रता यानी नमी कितनी है उसके अनुरूप ही वर्षा का वेग निर्भर करेगा। अगर बादल घने हैं और नमी भी अधिक है तो ज्यादा वर्षा होगी। वर्षा होने से वायु में मौजूद प्रदूषण वाले कण नीचे चले आएंगे। इससे 10 से 15 दिन तक राहत मिल सकती है।
प्रो. अग्रवाल के मुताबिक, नवंबर या दिसंबर के महीने में पानी वाले बादलों की वायु मंडल में उपस्थिति भी बड़ी चुनौती है। उन्होंने कहा कि कृत्रिम वर्षा कराने से किसी तरह का पर्यावरणीय नुकसान होने की संभावना बेहद कम है। वर्षा कराने के लिए जिस मिश्रण का प्रयोग आइआइटी टीम की ओर से किया जाता है, उसकी मात्रा इतनी अधिक नहीं है कि वह पानी में घुलकर घातक बन जाए। हालांकि इस बारे में अभी अध्ययन किया जाना है।आइआइटी ने कृत्रिम वर्षा कराने में सफलता पाई है, लेकिन इतनी बार वर्षा का अनुभव नहीं है, जिससे किसी पर्यावरणीय नुकसान का आकलन किया जा सके।
प्रो. अग्रवाल ने बताया कि कृत्रिम वर्षा तकनीक में विमान बादलों के नीचे उड़ान भरता है। विमान के पंखों पर फुलझड़ी छोड़ने जैसे उपकरण लगाए गए हैं, जिनसे गर्म हवा को वायु मंडल में छोड़ा जाता है। इसके साथ आइआइटी में तैयार विशेष प्रकार के मिश्रण का छिड़काव किया जाता है जिनका आकार पांच से 10 माइक्रॉन है। वे इतने हल्के हैं कि हवा की गर्मी के साथ ऊपर उठकर बादलों में मिल जाते हैं और उनमें मौजूद पानी को अपनी ओर खींचते हैं। इससे पानी एकत्र होकर बरसना शुरू हो जाता है। कृत्रिम वर्षा के लिए आमतौर पर सिल्वर आयोडाइड का प्रयोग होता है लेकिन आइआइटी अपने यहां तैयार विशेष मिश्रण का प्रयोग करता है। आइआइटी टीम ने प्रोजेक्ट पर 2017 में काम शुरू किया था और पूरी तरह से सफलता 2023 में मिली है।
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