Tulsi Vivah 2024 origin of tulsi in Vrindavan story shaligram ji vrinda puja significance

Tulsi Vivah 2024: तुलसी विवाह की तिथि कल्प भेद के कारण हर शास्त्रों में भिन्न भिन्न बताई गई हैं. पद्मपुराण में कार्तिक शुक्ल नवमी को तुलसी विवाह का उल्लेख किया गया है और देवी पुराण अनुसार कार्तिक पुर्णिमा को. अन्य ग्रन्थों के अनुसार प्रबोधिनी से पूर्णिमा तक पांच दिन अधिक फल देते हैं. व्रती को विवाह के तीन मास पूर्व तुलसी के पेड़ को सिंचन और पूजन से पोषित करना चाहिए.

शास्त्रोक्त विवाह-मुहूर्त में तोरण-मण्डपादि की रचना करें, चार ब्राह्मणों को साथ लेकर गणपति-मातृकाओं का पूजन, नान्दीश्राद्ध और पुण्याह वाचन करके मन्दिर की साक्षात् मूर्ति के साथ लक्ष्मीनारायण और  तुलसी को शुभासनपर पूर्वाभिमुख विराजमान करें.

सपत्नी यजमान उत्तराभिमुख बैठकर ‘तुलसी-विवाह-विधि’ के अनुसार गोधूलीय समय में ‘वर’ (भगवान्) का पूजन, ‘कन्या’ (तुलसी) का दान, कुशकण्डी हवन और अग्नि-परिक्रमा आदि करके वस्त्राभूषणादि दे और यथा शक्ति ब्राह्मण-भोजन कराकर स्वयं भोजन करें.

तुलसी विवाह की कथा कैसे वृंदावन की उत्पति से जुड़ी हैं?

तुलसी विवाह की परंपरा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है. तुलसी विवाह कहीं कहीं तो आम शादियों की तरह बाजे गाजे बारातियों के साथ बारात निकालकर मनाते हैं. तो आइए जानते हैं कि क्यों इस परम्परा का पालन बदस्तूर आज भी जारी है.

देवी पुराण 9.25.34 अनुसार, कार्तिकपूर्णिमा तिथिको तुलसी का मंगलमय प्राकट्य हुआ था. उस समय सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि ने उनकी पूजा सम्पन्न की थी. अतः जो मनुष्य उस दिन उन विश्वपावनी तुलसी की भक्ति पूर्वक पूजा करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक जाता है ॥ (कार्तिक्यां पूर्णिमायां च तुलस्या जन्म मङ्गलम्। तत्र तस्याश्च पूजा च विहिता हरिणा पुरा ।। 34)

दरअसल देखा जाए तो तुलसी स्वयं माता लक्ष्मी ही हैं अर्थात तुसली और लक्ष्मी भिन्न नहीं हैं, इसका प्रमाण देवी पुराण में मिलता हैं.

कार्तिकीपूर्णिमायां तु सितवारे च पाद्मज। सुषाव सा च पद्मांशां पद्मिनीं तां मनोहराम्।। (9.17.8)

अर्थात: – लक्ष्मी की अंश स्वरूपिणी तथा पद्मिनीतुल्य एक मनोहर कन्या (तुलसी) को जन्म दिया ॥ और तो और माता तुलसी के पती शंखचूड़ को भी भगवान विष्णु ही माना हैं अर्थात दोनों भिन्न नहीं हैं. इसका भी प्रमाण आपको देवी पुराण में मिलता हैं.

स स्नातः सर्वतीर्थेषु यः स्नातः शङ्खवारिणा। शङ्खो हरेरधिष्ठानं यत्र शङ्खस्ततो हरिः ॥ 26

तत्रैव वसते लक्ष्मीर्दूरीभूतममङ्गलम्। स्त्रीणां च शङ्खध्वनिभिः शूद्राणां च विशेषतः ॥ 28

अर्थात: – शंख (शंखचूड़) भगवान श्रीहरि का अधिष्ठान स्वरूप है. जहाँ शंख रहता है, वहाँ भगवान श्रीहरि विराजमान रहते हैं, वहींपर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं तथा उस स्थानसे सारा अमंगल दूर भाग जाता है. अब इससे ये प्रमाणित होता हैं की लक्ष्मी जी ही तुलसी हैं और श्री हरी ही शंखचूड़ हैं.

वृंदावन का नामकरण तथा तुलसी और शंखचूड़ की कहानी: – ब्रह्मवैवर्त पुराण अनुसार

तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा की,  उसने शङ्खचूड़ को (श्री हरी) को प्राप्त किया. भगवान नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए. भगवान श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्ष रूप में प्रकट हुई और तुलसी के शापसे श्रीहरि शालग्राम शिला हो गये.

उस शिला के वक्षः-स्थलपर उस अवस्थामें भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगी. उस तुलसी की तपस्याका एक यह भी स्थान है; इसलिये इसे मनीषी पुरुष ‘वृन्दावन’ कहते हैं। (तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द है) अथवा मैं तुमसे दूसरा उत्कृष्ट हेतु बता रहा हूँ, जिससे भारत वर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृन्दावनके नामसे प्रसिद्ध हुआ.

चलिए अब तुलसी पूजन का शास्त्रीय पक्ष जानते हैं-  देवी पुराण, स्कन्ध क्रमांक 9 अध्याय क्रमांक 25 अनुसार, सर्वप्रथम तुलसी पूजा भगवान विष्णु ने तुलसी वन की थी. तुलसी वन में श्रीहरि ने विधिवत् स्नान किया और उन साध्वी तुलसीका पूजन किया. तत्पश्चात् उनका ध्यान करके भगवान ने भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की. उन्होंने लक्ष्मीबीज (श्रीं), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (एँ) – इन बीजोंको पूर्वमें लगाकर ‘वृन्दावनी’ – इस शब्दके अन्तमें ‘डे’ (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर तथा अन्त में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र (श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा) से पूजन किया था.

जो इस कल्पवृक्षरूपी मन्त्रराज से विधि पूर्वक तुलसी की पूजा करता है, वह निश्चितरूप से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है. घृतका दीपक, धूप, सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्प आदि उपचारों तथा स्तोत्र से भगवान श्रीहरि के द्वारा सम्यक् पूजित होकर तुलसी देवी वृक्ष से तत्काल प्रकट हो गयीं. वे कल्याण कारिणी तुलसी प्रसन्न होकर श्रीहरि के चरण–कमल की शरण में चली गयीं. तब भगवान विष्णु ने उन्हें यह वर प्रदान किया-‘तुम सर्वपूज्या हो जाओ.

सुन्दर रूपवाली तुमको मैं अपने मस्तक तथा वक्षःस्थलपर धारण करूँगा और समस्त देवता आदि भी तुम्हें अपने मस्तकपर धारण करेंगे’ – ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि उन तुलसी को साथ लेकर अपने स्थान पर चले गये. भगवान विष्णु बोले “जब वृन्दा (तुलसी)-रूप वृक्ष तथा अन्य वृक्ष एकत्र होते हैं, तब विद्वान् लोग उसे ‘वृन्दा’ कहते हैं. ऐसी ‘वृन्दा’ नामसे प्रसिद्ध अपनी प्रिया की मैं उपासना करता हूँ. जो देवी प्राचीन काल में सर्वप्रथम वृन्दावन में प्रकट हुई थी और इसलिये जो ‘वृन्दावनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई, उस सौभाग्यवती देवी की मैं उपासना करता हूँ.

असंख्य विश्वों में सदा जिसकी पूजा की जाती है, इसलिये ‘विश्वपूजिता’ नामसे प्रसिद्ध उस सर्वपूजित भगवती तुलसी की मैं उपासना करता हूँ. तुम असंख्य विश्वों को सदा पवित्र करती हो, अतः तुम ‘विश्वपावनी’ नामक देवी का मैं विरह से आतुर होकर स्मरण करता हूँ. जिसके विना प्रचुर पुष्प अर्पित करनेपर भी देवता प्रसन्न नहीं होते हैं, मैं शोकाकुल होकर ‘पुष्पसारा’ नामसे विख्यात, पुष्पोंकी सारभूत तथा शुद्धस्वरूपिणी उस देवी तुलसीके दर्शनकी कामना करता हूँ.

संसार में जिसकी प्राप्तिमात्र से भक्त को निश्चय ही आनन्द प्राप्त होता है, इसलिये ‘नन्दिनी’ नामसे विख्यात वह देवी अब मुझपर प्रसन्न हो. सम्पूर्ण विश्वों में जिस देवी की कोई तुलना नहीं है, अतः ‘तुलसी’ नाम से विख्यात अपनी उस प्रियाकी मैं शरण ग्रहण करता हूं. श्रीहरि ने तुलसी को वर प्रदान किया-“तुम सबके लिये तथा मेरे लिये पूजनीय, सिरपर धारण करने योग्य, वन्दनीय तथा मान्य हो जाओ, वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी तथा कृष्णजीवनी- ये तुलसी के आठ नाम प्रसिद्ध होंगे. जो मनुष्य तुलसी की विधिवत् पूजा करके नामके अर्थों से युक्त आठ नामों वाले इस नामाष्टकस्तोत्र का पाठ करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है”

तुलसी का ध्यान पापों का नाश करने वाला है, अतः उनका ध्यान करके बिना आवाहन किये ही तुलसी के वृक्ष में विविध पूजनोपचारों से पुष्पों की सारभूता, पवित्र, अत्यन्त मनोहर और किये गये पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये प्रज्वलित अग्निकी शिखा के समान साध्वी तुलसी की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये.

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